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संवाददाता। लखनऊ।
-संगोष्ठी में वरिष्ठ पंजाबी विद्वानों / लेखकों द्वारा उपरोक्त विषय पर अपने-अपने वक्तव्य प्रस्तुत किये गये।
स० नरेन्द्र सिंह मोंगा ने कहा गुरु नानक साहिब ने अपने समय की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए अपनी व्यथा प्रकट की है. खत्रीआ त धरमु छोडिआ मलेछ भाखिआ गही।।" और "घरि घरि मीआ सभनां जीआं बोली अवर तुमारी।।" अर्थात क्षत्रिय अपना धर्म छोड़कर म्लेच्छ धर्म और भाषा को अपना रहे हैं और घर घर में मियां और बेगानी भाषा स्थान ले रही है। ऐसी स्थिति में उन्होंने गुरमति साहित्य की भाषा हेतु सामाजिक एकजुटता के लक्ष्य को ध्यान में रखकर पंजाबी और उत्तर भारत की स्थानीय भाषाओं मुख्यतः ब्रजभाषा, अवधी, खड़ी बोली आदि की मिश्रित संत भाषा का प्रयोग किया और लिपि हेतु ब्राह्मी लिपि से विकसित लेंहदी लिपि को चुना जो परिष्कृत हो कर गुरुमुखी बन गई।
स० दविन्दर पाल सिंह बग्गा' ने कहा वास्तव में गुरमत साहित्य का तात्पर्य गुरु ग्रंथ साहिब के सभी वाणी कारों की बाणी, गुरु गोविंद सिंह जी की बाणी तथा भाई गुरदास जी की रचनाओं से है। गुरु ग्रंथ साहब में वर्णित वाणीकारों में सिक्ख धर्म के 6 गुरु साहबान के अलावा 15 भक्त जनों की बाणी भी सम्मिलित है। विशेष कर कबीर जी रविदास जी नामदेव जी आदि। इन सब भगतों, बाणीकारों की वाणी में पूर्वाचल की बोली व बृज भाषा का बहुत ही अधिक प्रभाव है। वास्तव में गुरमत साहित्य में बृज भाषा के सवैया, छंद बहुत महत्व रखते हैं एवं बहुलता से प्रयोग हुए हैं। ये बोलियां अपनी कोमलता, मिठास तथा श्रवण प्रियता के लिए प्रसिद्ध है। कविता और सवैया ऐसे छद है, जो स्वाभाविक तौर पर सुर और ताल में भी पढ़े जाते हैं परिणाम स्वरुप इन छंदों में लिखी बाणी पढ़ने या सुनने मात्र से भरपूर मात्रा में काव्य रस की प्राप्ति होती है। उदाहरण के तौर पर गुरु गोबिंद सिंह जी का एक सवैया, जिसकी अंतिम पंक्ति "साच कहाँ सुन लेहु सबै जिनि प्रेम कियो तिनहीं प्रभु पायो" विश्व प्रसिद्ध है।
मेजर (डॉ०) मनमीत कौर सोढी ने कहा गुरमति साहित्य पर ब्रज भाषा का प्रभाव सिख धर्म की समावेशी प्रवृत्ति को दर्शाता है। सिख गुरुओं ने धर्म,भक्ति और वीर रस से ओतप्रोत ग्रंथों में ब्रज भाषा का उपयोग किया, जिससे उनके संदेश अधिक प्रभावी और जनसुलभ बने। यह प्रभाव विशेष रूप से गुरु ग्रंथ साहिब, दशम ग्रंथ और अन्य ऐतिहासिक सिख ग्रंथों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जो सिख धर्म और भक्ति आंदोलन के पारस्परिक सम्बन्ध को दर्शाती है। ब्रज भाषा ने गुरबाणी को सरल, मधुर, और प्रभावी बनाया, जिससे यह जनसाधारण तक आसानी से पहुँच सकी। गुरु नानक देव जी ने भी भक्ति रस में भरी सहज भाषा में अपने उपदेश दिए। गुरु गोबिंद सिंह जी की ब्रजभाषा रचनाओं में वीर रस का प्रभाव दिखता है। गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रसिद्ध दरबारी कवि भाई नंदलाल जी की कई रचनाएं ब्रजभाषा में थी। गुरबिलास ग्रंथ और सूरज प्रकाश ग्रंथ में भी ब्रजभाषा की झलक मिलती है।
गुरु अर्जन देव जी ने जब गुरु ग्रंथ साहिब का संकलन किया तब उन्होंने भक्त कबीर, नामदेव सूरदास और रविदास आदि संतों की वाणीयों को भाषा की सीमाओं से ऊपर उठकर संकलित किया। इस प्रक्रिया में ब्रज भाषा भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकी।
रनदीप कौर- वृज भाषा हिंदी साहित्य के काव्य की सबसे समृद्ध भाषा है,जिसका उपयोग 13 वीं शताब्दी के अंत मे संत कवियों ने सर्वाधिक उपयोग किया।
अंत मे अकादमी के निदेशक के प्रतिनिधि के रूप मे एवं कार्यक्रम काॅर्डिनेटर अरविन्द नारायण मिश्र ने संगोष्ठी में उपस्थित वक्ताओं विद्वानों को अंग वस्त्र एवं स्मृति चिन्ह भेंट करते हुए सभी का साधुवाद आभार व्यक्त किया। कार्यक्रम मे मुख्य रूप से अरविन्द नारायण मिश्र,अंजू सिंह महेन्द्र प्रताप वर्मा आदि सहित पंजाबी संगत उपस्थित थी
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